23 March 2015

जरा याद करो कुर्बानी!

शहीद ए आजम भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहीद दिवस पर उनके ही एक क्रांतिकारी साथी राम प्रसाद 'बिस्मिल' की एक कविता काबिले गौर है। उर्दू भाषा में मुखम्मस शैली में लिखी गई यह कविता देश पर मर मिटने केअमर शहीदों के जज्बे को मर्मस्पर्शी ढंग से पेश करती है।

हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रहकर,
हमको भी पाला था मां-बाप ने दुख सह-सहकर,
वक़्ते-रुख़सत उन्हें इतना ही न आए कहकर,
गोद में आंसू कभी टपके जो रुख़ से बहकर,
तिफ़्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने को!

देश-सेवा ही का बहता है लहू नस-नस में,
अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़ के गढ़ की क़समें,
सरफ़रोशी की, अदा होती हैं यो ही रस्में,
भाई ख़ंजर से गले मिलते हैं सब आपस में,
बहने तैयार चिताओं में हैं जल जाने को!

नौजवानो, जो तबीयत में तुम्हारी खटके,
याद कर लेना कभी हमको भी भूले-भटके,
आपके अजबे-बदन होवें जुदा कट-कट के,
और सद चाक हो, माता का कलेजा फट के,
पर न माथे पे शिकन आए, क़सम खाने को!

अपनी क़िस्मत में अज़ल ही से सितम रक्खा था,
रंज रक्खा था, मिहन रक्खा था, ग़म रक्खा था,
किसको परवाह थी, और किसमें ये दम रक्खा था,
हमने जब वादी-ए-गुरबत में क़दम रखा था,
दूर तक यादे-वतन आई थी समझाने को!

अपना कुछ ग़म नहीं लेकिन ये ख़याल आता है,
मादरे हिंद पे कब से ये ज़वाल आता है,
देशी आज़ादी का कब हिंद में साल आता है,
क़ौम अपनी पे तो रह-रह के मलाल आता है,
मुंतज़िर रहते हैं हम ख़ाक में मिल जाने को!

मैक़दा किसका है, ये जामो-सबू किसका है?
वार किसका है मेरी जां, यह गुलू किसका है?
जो बहे क़ौम की ख़ातिर वो लहू किसका है?
आसमां साफ़ बता दे, तू अदू किसका है?
क्यों नये रंग बदलता है ये तड़पाने को!

दर्दमंदों से मुसीबत की हलावत पूछो,
मरने वालों से ज़रा लुत्फ़े-शहादत पूछो,
चश्मे-मुश्ताक़ से कुछ दीद की हसरत पूछो,
जां निसारों से ज़रा उनकी हक़ीक़त पूछो,
सोज़ कहते हैं किसे, पूछो तो परवाने को!

बात सच है कि इस बात की पीछे ठानें,
देश के वास्ते कुरबान करें सब जानें,
लाख समझाए कोई, एक न उसकी मानें,
कहते हैं, ख़ून से मत अपना गिरेबां सानें,
नासेह, आग लगे तेरे इस समझाने को!

न मयस्सर हुआ राहत में कभी मेल हमें,
जान पर खेल के भाया न कोई खेल हमें,
एक दिन को भी न मंजूर हुई बेल हमें,
याद आएगी अलीपुर की बहुत जेल हमें,
लोग तो भूल ही जाएंगे इस अफ़साने को!

अब तो हम डाल चुके अपने गले में झोली,
एक होती है फ़कीरों की हमेशा बोली,
ख़ून से फाग रचाएगी हमारी टोली,
जब से बंगाल में खेले हैं कन्हैया होली,
कोई उस दिन से नहीं पूछता बरसाने को!

नौजवानो, यही मौक़ा है, उठो, खुल खेलो,
खि़दमते क़ौम में जो आए बला, तुम झेलो,
देश के सदके में माता को जवानी दे दो,
फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएं, ले लो,
देखें कौन आता है, इर्शाद बजा लाने को!

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